क्या है श्री गणेश की शक्ति का असली रहस्य? -2
अब तक आपने पढ़ा कि श्री गणेश के स्त्री स्वरुप का उल्लेख किस किस धर्म ग्रन्थ में है। इसको लेकर यह विवाद रहा है कि यह परंपरा सोलहवीं शताब्दी की है। अब जानिये कि बीसवीं सदी के मध्य में प्रोफेसर विलार्ड लिबी द्वारा आधुनिक रेडियो कार्बन स्पेक्ट्रोस्कोपी से प्रागैतिहासिक वस्तुओं के जन्म के समय का सही अनुमान लगाने की तकनीकें आने के बाद श्री-गणेश के स्त्री रूपों की पूजा की प्राचीनता के खिलाफ किये जानेवाले दावों की कैसे हवा निकली? यह भी जानिये कि क्या श्री गणेश के स्त्री स्वरुप की पूजा करने से कोई लाभ होता है? अंतिम आलेख में जानेंगे कि विनायकी पूजा में क्या जोखिम हैं? क्यों यह पूजा पद्धति अंततः बंद हो गयी?
इतिहास की गवाह मूर्तियाँ : पहले बहुत से विद्वान् बिना किसी प्रमाण के यह फतवा देते रहते थे कि श्री गणेश के स्त्री स्वरुप की पूजा की परंपरा सोलहवीं शताब्दी के आसपास शुरू हुई। इस धारणा का कोई विरोध भारतीयों तब तक नहीं किया जा सका था, जब तक कि 1947 में विलार्ड लिबी द्वारा रेडियो कार्बन डेटिंग तकनीक की खोज नहीं की गयी। इस खोज को दुनिया भर में मिली मान्यता और 1960 में विलार्ड लिबी को नोबल पुरस्कार मिलते ही, खुद प्रोफ़ेसर विलार्ड का ध्यान सबसे पहले भारत समेत विश्व की अनेक प्राचीन सभ्यताओं की और गया। नतीजा यह हुआ कि अस्सी के दशक के अंत में मुम्बई में पहली रेडियो कार्बन -स्पेक्ट्रोस्कोपी मशीन आ गयी। कुछ ही महीनों में भारत के छिपे प्रागैतिहासिक रहस्य परत-दर-परत खुलने लगे।
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स्थिति यह है कि अब तक भारतीय पुरातत्व विभाग, मथुरा और भोपाल के राजकीय संग्रहालयों और रामनगर (वाराणसी) स्थित अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडियन स्टडीज़ के अधिकार में सुरक्षित गजाननी, गणेशी, गणेशानी या विनायकी की कुछ मूर्तियों की जांच के बाद अब पूरे संसार के पुरातात्विक विशेषज्ञों ने मान लिया गया है कि वे कितनी पुरानी हैं।
वैज्ञानिक अब निश्चित तौर पर मानते हैं कि मथुरा स्थित गण-मातृका विनायकी दूसरी शताब्दी से पहले की है। रैरथ (राजस्थान) में मिली पकी हुई मिट्टी (टेरेकोटा) पर बनी गजाननी मातृका ईसा से सौ साल पहले, गढ़वा (इलाहाबाद) में मिली तीनों मातृकाओं की मूर्तियों में विनायकी आठवीं शताब्दी से पहले की, मोरना (मध्य प्रदेश) में मिली खड़ी विनायकी की मूर्ति दसवीं शताब्दी की और अब कोलकाता संग्रहालय में संरक्षित, गिरियक (पटना, बिहार) में मिली बैठी मुद्रा में विनायकी की मूर्ति ग्यारहवीं शताब्दी की, रानीपुर झारियाल (उड़ीसा) में मिली चौंसठ योगिनियों में से एक, नृत्य की मुद्रा में विनायकी की मूर्ति नवीं शती की है। वहीं हीरापुर (भुवनेश्वर) के चौंसठ योगिनी मंदिर, मध्य प्रदेश में भेड़ाघाट मंदिर (जबलपुर) और हिंगलाजपुर मंदिर (मंदसौर, भोपाल) में मिली विनायकी मूर्तियां दसवीं शताब्दी की हैं। इन सभी विनायकी मूर्तियों की वैज्ञानिक जांच से अब यह निश्चित रूप से माना जाता है कि भारत में स्त्री रूपी श्री गणेश की पूजा निश्चित रूप से पौराणिक काल में ही कम से कम तीन हज़ार साल पहले तो शुरू हुई ही होगी। ऐसा ना होता तो तिब्बतियों में गण-मातृका के रूप में हाथी के सर वाली तथा कहीं-कहीं सिंह के पैरों वाली गजाननी की उपासना की परंपरा ना होती। वैसे तमिलनाडु में मीनाक्षी अम्मन मंदिर (मदुरई) में भी सातवीं शताब्दी में निर्मित व्याघ्रपदा विनायकी की मूर्ति पायी गयी है।
विनायकी पूजा के प्रभाव: आध्यात्म की दुनिया का शाक्त सिद्धांत ठीक उसी तरह ही है, जैसे आधुनिक वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टीन का सापेक्षता सिद्धांत E=MC2 है। इस सिद्धांत के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में सर्वत्र व्याप्त ऊर्जा के हर स्वरुप और नज़र में आनेवाली वस्तुओं का अस्तिव एकदूसरे में बदला जा सकता है। उनका कहना था कि जिस तरह से ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती बस एक स्थिति से दूसरी स्थिति में बदल जाती है, वैसे ही समूची सृष्टि में दिखनेवाली या अदृश्य ऊर्जा या हर वस्तु एक रूप से दूसरे रूप में बदल जाती है। इस कार्य में भी ऊर्जा उत्पन्न होती या खर्च होती है। इसी सिद्धांत पर बाद आणविक बम बने और आणविक ऊर्जा की खोज हुई।
हिन्दू धर्म की बहुत सी बातें लोगों की समझ में इसलिए नहीं आतीं, क्योंकि हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों ने कम पढ़े-लिखे लोगों को कोई भी जटिल तथ्य को समझाने के लिए उसे कुछ कहानियाँ बना कर उनकी आस्था, व्रत और त्योहारों से जोड़ दिया।
श्री गणेश के ब्रह्मचारी जीवन में हुई एक प्रमुख घटना, इस आलेख के पहले भाग में वर्णित ग्रंथों में अलग अलग रूप से मिलती है। उसका सार यह है कि जिस प्रकार माता पार्वती ने अपने शरीर से कुछ मृत त्वचा उतार कर उससे एक बालक का निर्माण कर दिया था, उन्हीं पार्वती माता ने एक बार पीछे से आकर अपने हाथों से भगवान् शंकर के नेत्र बंद कर लिए, इस पर भगवान ने अपना तीसरा नेत्र खोल कर देखने का प्रयास किया तो समूचे कैलाश पर्वत पर इतना तापमान बढ़ गया कि पार्वती जी हो पसीना आ गया। इस पसीने से एक राक्षस शिशु अन्धक उत्पन्न हुआ। बाद में यही राक्षस कैलाश पर आक्रमण करके माता पार्वती को अपहरण करने की कोशिश करने लगा। आधुनिक विज्ञान इस तरह त्वचा या डीएनए से दूसरे जीवन को उत्पन्न करने की पद्धति को प्रयोगशाला में संभव बना चुका है। इसे क्लोनिंग कहा जाता है।
हाँ, तो पार्वती जी के अपहरण के प्रयास में लगे अन्धक के साथ खुद महादेव युद्ध करने लगे मगर अंधक के शरीर पर जितने घाव होते थे, उनसे उतनी ही अन्धकाएं (अन्धक जैसी राक्षसियां) उत्पन्न हो जाती थीं। उन राक्षसी स्त्री शक्तियों से युद्ध में सारे देवताओं की स्त्री शक्तियों को आमंत्रित किया गया। श्री गणेश थे अविवाहित ब्रह्मचारी और जैसे ही उनकी माता ने आह्वान किया उन्होंने स्त्री रूप धारण करके अन्धक के शरीर का सारा रक्त सूंड लगा कर सोख लिया। युद्ध समाप्त होने पर स्वयं भगवान् भोलेनाथ और माता पार्वती ने श्री गणेश के इस चमत्कारी महिला रूप की आराधना की।
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अंतिम कड़ी में जानेंगे : बौद्ध और जैन तांत्रिक शास्त्रों में श्री गणेश की स्त्री शक्ति की आराधना बहुत ही सावधानी से की जाती है। पुरुष रूप में श्री गणेश विघ्नविनाशक और प्रथम पूज्य और सौम्य हैं, लेकिन उनका स्त्री स्वरुप माता पार्वती की भांति दयावान होने के बावजूद उन्हीं के उग्र रूप का प्रतीक भी है। विनायकी की पूजा की बहुत सी सावधानियां और मर्यादाएं हैं, जिनका पालन ना करने पर अर्थ का आनार्थ हो जाता है। इसीलिए संभवतः विनायकी की नियमित पूजा अंततः बंद होती चली गयी। आलेख की अंतिम कड़ी में हम जानेंगे कि विनायकी के रूप में श्री गणेश की पूजा कोई करना चाहे तो उसे कैसे तथा क्या-क्या ध्यान रखना चाहिए?
प्रथम भाग : क्या है श्री गणेश की शक्ति का असली रहस्य?