परंतु श्राप को वापस नहीं लिया जा सकता था। ऋषि शमीक तुरंत ही राजमहाल जाकर राजा परीक्षित को यह बता बताते हैं कि मेरे पुत्र ने भावना में बहकर तुम्हें श्राप दे दिया है। इसमें तुम्हारा दोष नहीं, दोष तो समय का है। इसलिए हमारे मन में यह सोचकर पीड़ा हो रही है कि जिसका दोष है उसे दंड नहीं मिलेगा लेकिन तुम्हें मिलेगा। ऋषि शमिक अपने पुत्र ऋषि श्रृंगी के शाप के बारे में बताते हैं कि आज से सातवें दिन तक्षक नाग के काटने से तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी राजन। यह सुनकर रानी रोने लगती है। शमिक ऋषि कहते हैं कि विधि के धनुष से दुर्भाग्य का यह बाण निकल चुका है वह वापस नहीं होगा। मैं यही बताने आया हूं कि अब तुम्हारे पास जितना समय बचा है उसका उपयोग करो। अपने गुरुजनों से परामर्श करो। जिससे वह तुम्हें संमार्ग दिखाएं। राजन भगवान तुम्हारी आत्मा को शांति दें।
तब राजा परीक्षित रात्रि में ही अपने गुरु के पास पहुंचते हैं और अपनी व्यथा बताकर कहते हैं कि मैं 7 दिन में ऐसा क्या करूं कि मेरा परलोक सुधर जाए। तब गुरु कहते हैं कि भक्ति करो। जो फल योग, तपस्या और समाधी से नहीं मिलता कलियुग में वह फल श्री हरिकीर्तन अर्थात श्रीकृष्ण लीला का गान करने से सहज ही मिल जाता है। इसलिए तुम श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण और कीर्तन करो। उसमें श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं का पवित्र वर्णन है। उसी के श्रवण से उत्पन्न हुई भक्ति ही तुम्हारे मोक्ष का कारण होगी। तुम वेदव्यासजी के पुत्र शूकदेवजी के पास जाओ वे तुम्हें यह कथा सुनाएंगे।
तब राजा परीक्षित बालक शूकदेव के पास जाकर उनके चरणों को धोकर उनसे श्रीमद्भागवत कथा सुनाते हैं।
इसके बाद 7वें दिन तक्षक नाग राजा परीक्षित को डंस लेता है। राज परीक्षित की मृत्यु का कारण जब उनके पुत्र जनमेजय को पता चला तो उन्होंने संकल्प लिया की मैं एक ऐसा यज्ञ करूंगा जिसके चलते सभी नाग जाति का समूलनाश हो जाएगा। जनमेजय के यज्ञ के चलते एक एक करके सभी नाग यज्ञ की शक्ति से खिंचाकर उसमें भस्म होते जा रहे थे।
जब लाखों सर्प यज्ञ की अग्नि में गिरने प्रारंभ हो गए, तब भयभीत तक्षक ने इन्द्र की शरण ली। वह इन्द्रपुरी में रहने लगा। वासुकि की प्रेरणा से एक ब्राह्मण आस्तीक परीक्षित के यज्ञस्थल पर पहुंचा और यजमान तथा ऋत्विजों की स्तुति करने लगा। उधर जब ऋत्विजों ने तक्षक का नाम लेकर आहुति डालनी प्रारंभ की तब मजबूरी में इन्द्र ने तक्षक को अपने उत्तरीय में छिपाकर वहां लाना पड़ा। वहां वे तक्षक को अकेला छोड़कर अपने महल में लौट गए। ऐसे समय माता मनसादेवी के पुत्र विद्वान् बालक आस्तिक (आस्तीक) से प्रसन्न होकर जनमेजय ने उसे एक वरदान देने की इच्छा प्रकट की तो उसने वरदान में यज्ञ की तुरंत समाप्ति का वर मांगा। बस इसी कारण तक्षक भी बच गया क्योंकि उसके नाम के आह्वान के समय वह बस अग्नि में करने ही जा रहा था और यज्ञ समाप्ति की घोषणा कर दी गई।
कद्रू और कश्यप के पुत्र वासुकी की बहन देवी मनसा ने नागों की रक्षार्थ जन्म लिया था। अधिकतर जगहों पर मनसा देवी के पति का नाम ऋषि जरत्कारु बताया गया है और उनके पुत्र का नाम आस्तिक (आस्तीक) है जिसने अपनी माता की कृपा से सर्पों को जनमेयज के यज्ञ से बचाया था।